Lekhika Ranchi

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आचार्य चतुसेन शास्त्री--वैशाली की नगरबधू-


151 . छत्र - भंग : वैशाली की नगरवधू

सम्राट् बिम्बसार अलस भाव से शय्या पर पड़े थे। उनके शरीर पर कौशेय और हल्का उत्तरीय था । उनके केशगुच्छ कन्धों पर फैले थे। अधिक आसव पीने तथा रात्रि जागरण के कारण उनके बड़े- बड़े नेत्र गुलाबी आभा धारण किए, अधखिले नूतन कमल की शोभा धारण कर रहे थे। द्वार पर बहुत - से मनुष्यों का कोलाहल हो रहा था , परन्तु सम्राट को उसकी चिन्ता न थी , वे सोच रहे थे देवी अम्बपाली का देवदुर्लभ सान्निध्य -सुख, जिसके सम्मुख राज - वैभव , साम्राज्य और अपने जीवन को भी वे भूल गए थे।

परन्तु द्वार पर कोलाहल के साथ शस्त्रों की झनझनाहट तथा अश्वों और हाथियों की चीत्कार भी बढ़ती गई। सुरा- स्वप्न की कल्पना में यह कटु कोलाहल सम्राट को विघ्न - रूप प्रतीत हआ। उन्होंने आगे झुककर निकट आसन्दी पर रखे स्फटिक - कृप्यक की ओर हाथ बढ़ाया , दूसरे हाथ में पन्ने का हरित पात्र ले उसमें समूचा पात्र उंडेल दिया , परन्तु उसमें एक बूंद भी मद्य नहीं था । पात्र को एक ओर विरक्ति से फेंककर उन्होंने एक बार पूरी आंख उघाड़कर कक्ष में देखा वहां कोई भी व्यक्ति न था । सम्राट ने हाथ बढ़ाकर चांदी के घण्टे पर ज़ोर से आघात किया । परन्तु उन्हें यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि मदलेखा के स्थान पर स्वयं देवी अम्बपाली दौड़ी चली आ रही हैं । उनके मुंह पर रक्त की बूंद भी नहीं है और उनकी आंखें भय से फट रही हैं , तथा वस्त्र अस्त -व्यस्त हैं ।

“ हुआ क्या , देवी अम्बपाली ? ”सम्राट् ने संयत होने की चेष्टा करते हुए पूछा ।

“ आवास पर आक्रमण हो रहा है, देव ! ”

“ किसलिए ? ”

“ आपको पकड़ने के लिए । ”

“ क्या मैंने लिच्छवि सेनापति , गणपति और राजप्रमुखजनों को बन्दी करने की आज्ञा नहीं दी थी ? ”

“ दी थी देव ! ”

“ तो वे बन्दी हुए ? ”

“ नहीं देव , वे आपको बन्दी करना चाहते हैं । ”

“ हूं । ”कहकर सम्राट् बिम्बसार उठ बैठे । उनका गौर शरीर एक बार कंपित हुआ । होंठ सम्पुटित हुए । उन्होंने जिज्ञासा - भरी दृष्टि से अम्बपाली की ओर देखकर हंसते हुए कहा- “ फिर इतना अधैर्य क्यों , प्रिये ! जब तक यह मागध सम्राट का खड्ग है। ”उन्होंने अपने निकट रखे हुए अपने खड्ग की ओर देखकर कहा ।

“ देव , मुझे कुछ अप्रिय सन्देश सम्राट् से निवेदन करना है। ”

“ अप्रिय सन्देश ? युद्धकाल में यह असम्भाव्य नहीं। तुम क्या कहना चाहती हो देवी अम्बपाली ? ”

“ देव , सेनापति उदायि मारे गए। ”

“ उदायि मारे गए ? सम्राट ने चीत्कार कर कहा ।

“ और आर्य भद्रिक निरुपाय और निरवलम्ब हैं । वे घिर गए हैं और किसी भी क्षण आत्मसमर्पण कर सकते हैं । ”

“ अरे , तब तो आयुष्मान् सोमप्रभ और मेरे हाथियों ही पर आशा की जा सकती

“ भद्र सोमप्रभ ने युद्ध बन्द कर दिया , देव ! ”

“ युद्ध बन्द कर दिया ? किसकी आज्ञा से ?

“ अपनी आज्ञा से देव ! ”– अम्बपाली ने मरते हुए प्राणी के से टूटते स्वर में कहा ।

सम्राट का सम्पूर्ण अंग थर - थर कांपने लगा। मस्तक का सम्पूर्ण रक्त नेत्रों में उतर आया । उन्होंने खूटी पर लटकता अपना मणि - खचित विकराल खड्ग फुर्ती से उठा लिया और उच्च स्वर से कहा -

“ यह मगध सम्राट् श्रेणिक बिम्बसार का सागर -स्नात पूत खड्ग है । मैं इसी की शपथ खाकर कहता हूं कि अभी उस अधम वंचक सोमप्रभ का शिरच्छेद करूंगा। ”उन्होंने वेग से तीन बार विजय - घण्ट पर प्रहार किया ।

सिंहनाद ने नतमस्तक कक्ष में प्रवेश किया । सम्राट ने अकम्पित कण्ठ से कहा - “ सिंहनाद, मुझे गुप्त मार्ग दिखा , मैं अभी मागध स्कन्धावार में जाऊंगा। देवी अम्बपाली , भय न करो, मैं अभी एक मुहूर्त में उस कृतघ्न विद्रोही को मारकर तुम्हारे महालय का उद्धार करता हूं। ”

सिंहनाद ने साहस करके कहा - “ किन्तु देव ! ”

“ एक शब्द भी नहीं, भणे, मार्ग दिखा ! ”

अम्बपाली पीपल के पत्ते की भांति कांपने लगीं। उन्होंने अर्थपूर्ण दृष्टि से एक ओर देखा। सिंहनाद ने गुप्त गर्भद्वार का उद्घाटन करके कहा - “ इधर से देव! ”

सम्राट् उसी उत्तरीय को अंग पर भलीभांति लपेट , उसी प्रकार काकपक्ष को मुकुटहीन खुले मस्तक पर हवा में लहराते हुए गर्भमार्ग में घुस गए। पीछे-पीछेसिंहनाद ने भी सम्राट का अनुसरण किया । जाते - जाते उसने देवी अम्बपाली से होंठों ही में कहा

“ देवी , आज इस क्षण सम्राट् या सोमप्रभ दोनों में से एक की मृत्यु अनिवार्य है । अब केवल आप ही इसे रोकने में समर्थ हैं । समय रहते साहस कीजिए। ”वह गर्भमार्ग में उतर गया ।

अपने पीछे पैरों की आहट पाकर सम्राट ने कहा - “ कौन है ? ”

“ सिंहनाद देव ! ”

“ तब ठीक है, तेरे पास शस्त्र है ? ”

“ है, महाराज ! ”

“ इस मार्ग से परिचित है ? ”

“ हां महाराज! ”

“ तब आगे चल! ”

“ जैसी आज्ञा , देव ! ”

सिंहनाद चुपचाप आगे- आगे और सम्राट् उसके पीछे चल दिए । कुछ चलने पर सिंहनाद ने कहा - “ बस महाराज ! ”

“ अब ? ”

“ गंगा है; मैं पहले देख लूं, नाव है या नहीं, हमें उस पार चलना होगा। ”

“ इस पार भी तो हमारी सेना है । ”

“ सब लौट गई देव ! थोड़े हाथी हैं , वे भी लौट रहे हैं । ” सम्राट् ने कसकर होंठ दबाए ।

सिंहनाद अंधेरे में लोप हो गया । घड़ी देर बाद गढ़े में से उसने सिर निकालकर कहा -

“ इधर महाराज! ”

सम्राट भी चुपचाप गढ़े में कूद पड़े। एक सघन किनारे पर छोटी नाव बंधी थी , दोनों उस पर बैठ गए । सिंहनाद ने नाव खेना प्रारम्भ किया ।

मागध स्कन्धावार में बड़ी अव्यवस्था थी । सैनिक स्थान -स्थान पर अनियम और अक्रम से खड़े भीड़ कर रहे थे। आग जल रही थी ; घाट पर हाथियों , अश्वों और शकटों की भारी भीड़ भरी थी ।

सम्राट् विकराल नग्न खड्ग हाथ में लिए, नंगे बदन , नंगे सिर बढ़े चले गए। पीछे पीछेसिंहनाद पागल की भांति जा रहा था । क्षण- भर में क्या होगा , नहीं कहा जा सकता था ।

भीड़ - भाड़ और अव्यवस्था में बहुतों ने सम्राट् की ओर देखा भी नहीं; जिन्होंने देखा उनमें से बहुतों ने उन्हें पहचाना नहीं। जिसने पहचाना, वह सहमकर पीछे हट गया । सम्राट भारी -भारी डग भरते सेनापति सोमप्रभ के मण्डप के सम्मुख जा खड़े हुए ।

द्वार पर दो शूलधारी प्रहरी खड़े थे। उनके कवच अस्तंगत सूर्य की पीली धूप में चमक रहे थे। सिंहनाद ने धीरे - से आकर उनके कान में कुछ कहा। वे सहमते हुए पीछे हट गए । आगे सम्राट और पीछेसिंहनाद ने मण्डप में प्रवेश किया ।

मण्डप में नायक , उपनायक , सेनापति सब विषण्ण - वदन , मुंह लटकाए खड़े थे । सेनापति सोमप्रभ एकाग्र हो कुछ लेख लिख रहे थे। हठात् सम्राट को नंगे सिर , नंगे शरीर, विकराल खड्ग हाथ में लिए आते देख सभी खड़े हो गए । सम्राट ने कठोर स्वर से पुकारा

“ सोम ! ”

सोम ने देखा। उसने पास पड़ा हुआ खड्ग उठा लिया और वह सीधा तनकर खड़ा हो गया । उसने सम्राट का प्रतिवादन नहीं किया ।

सम्राट ने कहा

“ तूने युद्ध बन्द कर दिया ? ”

“ हां ! ”

“ किसकी आज्ञा से ? ”

“ अपनी ही आज्ञा से। ”

“ किस अधिकार से ? ”

“ सेनापति के अधिकार से । ”

“ मेरी आज्ञा क्यों नहीं ली गई ? ”

“ कुछ आवश्यकता नहीं समझी गई । ”

“ युद्ध किस कारण बन्द किया गया ? ”

“ इस कारण कि युद्ध का उद्देश्य दूषित था । ”

“ कौन - सा उद्देश्य ? ”

“ एक स्त्रैण, कापुरुष, कर्तव्यच्युत सम्राट ने अपनी पदमर्यादा और दायित्व का उल्लंघन कर एक सार्वजनिक स्त्री को पट्टराजमहिषी बनाने के उद्देश्य से युद्ध छेड़ा था । ”

“ और तेरा क्या कर्तव्य था रे, भाकुटिक ? ”

“ मैंने तक्षशिला के विश्वविश्रुत विद्या केंद्र में राजनीति और रणनीति की शिक्षा पाई है। मेरा यह निश्चित मत है कि साम्राज्य की रक्षा के लिए साम्राज्य की सेना का उपयोग होना चाहिए । सम्राट की अभिलाषा और भोग-लिप्सा की पूर्ति के लिए नहीं। ”

“ क्या सम्राट की मर्यादा तुझे विदित है ? ”

“ यथावत् ! और साम्राज्य की निष्ठा भी ! ”

“ वह क्या मुझसे भी अधिक है ? ”

“ निस्सन्देह! ”

“ तो मैं घोषणा करता हूं - देवी अम्बपाली को मैं पट्टराजमहिषी के पद पर अभिषिक्त करके राजगृह के राजमहालय में ले जाऊंगा। इसके लिए यदि एक - एक लिच्छवि के रक्त से भी वज्जी - भूमि को आरक्त करना होगा तो मैं करूंगा। वैशाली को भूमिसात् करना होगा तो मैं करूंगा। मैं अविलम्ब युद्ध प्रारम्भ करने की आज्ञा देता हूं। ”

“ मैं अमान्य करता हूं। इस कार्य के लिए रक्त की एक बूंद भी नहीं गिराई जाएगी और देवी अम्बपाली मगध के राजमहालय में पट्टराजमहिषी के पद पर अभिषिक्त होकर नहीं जा सकतीं । ”

“ जाएं तो ? ”

“ तो , या तो सम्राट नहीं या मैं नहीं। ”

सम्राट ने हंकार भरी और खड्ग ऊंचा किया । सोम ने कहा - “ भन्ते ! नायक, उपनायक , सेनापति सब सुनें यह कामुक, स्त्रैण और कर्तव्यच्युत सम्राट और साम्राज्य के एक कर्मनिष्ठ सेवक के बीच का युद्ध है। सब कोई तटस्थ होकर यह युद्ध देखें । ”

सम्राट् ने कहा - “ यह एक जारज , अज्ञातकुलशील , कृतघ्न सेवक के अक्षम्य विद्रोह का दण्ड है रे, आ ! ”

दूसरे ही क्षण दोनों महान् योद्धा हिंसक युद्ध में रत हो गए। खड्ग परस्पर टकराकर घात - प्रतिघात करने लगे। क्षण- क्षण पर दोनों के प्राणनाश की आशंका होने लगी । दोनों ही घातक प्रहार कर रहे थे तथा दोनों ही अप्रतिम योद्धा थे। युद्ध का वेग बढ़ता ही गया ।

अवसर पाकर सम्राट ने एक भरपूर हाथ सोमप्रभ के सिर को ताककर चलाया । परन्तु सोम फुर्ती से घूम गए। इससे खड्ग उनके कन्धों को छूता हुआ हवा में घूम गया । इसी क्षण सोम ने महावेग से खड्ग का एक जानलेवा हाथ सम्राट पर मारा। सम्राट ने उसे उछलकर खड्ग पर लिया । आघात पड़ते ही खड्ग झन्न - से दो टूक होकर भूमि पर जा गिरा और उस आक्रमण के वेग को न संभाल सकने से सम्राट फिसलकर गिर पड़े । गिरे हुए सम्राट के वक्ष पर अपना चरण रख सोमप्रभ ने उनके कण्ठ पर खड्ग रखकर कहा - श्रेणिक बिम्बसार , अब इस असिधार से तुम्हारे कण्ठ पर तुम्हारा मृत्युपत्र लिखने का क्षण आ गया । वीर की भांति मृत्यु का वरण करो। तुम भयभीत तो नहीं ? ”

सम्राट् ने वीर - दर्प से कहा - “ नहीं ? ”

इसी समय एक चीत्कार सुनाई दी । सोम ने पीछे फिरकर देखा - देवी अम्बपाली धूल और कीचड़ में भरी , अस्त -व्यस्त वस्त्र , बिखरे बाल , दोनों हाथ फैलाए चली आ रही थीं । उन्होंने वहीं से चिल्लाकर कहा - “ सोम , प्रियदर्शी सोम , सम्राट को प्राणदान दो ! मैं प्रतिज्ञा करती हूं कि मैं मगध - राज - महालय में नहीं जाऊंगी, न मगध की पट्टराजमहिषी का पद धारण करूंगी। ”

सोम ने अपना चरण सम्राट के वक्ष पर से नहीं हटाया । न उनके कण्ठ से खड्ग । उन्होंने मुंह मोड़कर अम्बपाली को देखा । अम्बपाली दौड़कर सोमप्रभ के चरणों में लोट गईं। उनकी अश्रुधारा से सोम के पैर भीग गए । वह कह रही थी - “ उनका प्राण मत लो सोम , मैं उन्हें प्यार करती हूं । परन्तु मैं कभी भी राजगृह नहीं जाऊंगी। मैं कभी इनका दर्शन नहीं करूंगी। स्मरण भी नहीं करूंगी । मैं हतभाग्या अपने हृदय को विदीर्ण कर डालूंगी ! उनके प्राण छोड़ दो ! छोड़ दो , प्रियदर्शन सोम , उन्हें छोड़ दो ! वे निरीह, शून्य और प्रेम के देवता हैं । वे महान् सम्राट हैं । उन्हें प्राण- दान दो । मेरे प्राण ले लो – प्रियदर्शन सोम , ये प्राण तो तुम्हारे ही बचाए हुए हैं , ये तुम्हारे हैं इन्हें ले लो , ले लो ! ”

अम्बपाली इस प्रकार विलाप करती हुईं सोम के चरणों में भूमि पर पड़ी - पड़ी मूर्च्छित हो गईं।

सोम ने सम्राट के कण्ठ से खड्ग हटा लिया। वक्षस्थल से चरण भी हटा लिया । उन्होंने गम्भीर भाव से आज्ञा दी – “ सम्राट् को बन्दी कर लो ! मैं उन्हें प्राणदान देता हूं , परन्तु उन्हें युद्धापराधी घोषित करता हूं । कर्तव्य पालन न करने के अभियोग में सैनिक न्यायालय में उनका विचार होगा और देवी अम्बपाली को यत्न से लिच्छवि सेनापति के अधिकार में पहुंचा दो । ”

इतना कहकर सोमप्रभ मण्डप से बाहर चले आए। उस समय सूर्यास्त हो चुका था और चारों दिशाओं में अंधकार फैल गया था ।

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